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समय के साथ ध्रुवीय सीमाओं की खोज में भारत की दृश्यता में सराहनीय प्रगति हुई है। भारत को अब व्यापक रूप से एक उभरती हुई शक्ति के रूप में देखा जा रहा है जो बहु विषयात्मक अंतर्राष्ट्रीय साझेदारियों की वारंटी दे सकता है। ऐसे अन्तःक्षेपों से भारत को वैश्विक वैज्ञानिक मामलों में एक शीर्ष स्थान स्थापित करने में सहायता मिलेगी।
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प्लवनशील अंटार्कटिक आइस शेल्व्स की स्थिरिता वैश्विक समुद्र स्तर में वृद्धि में अंटार्कटिक के योगदान को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। पूर्वी अंटार्कटिक के तटीय ड्रोनिंग मॉड लैंड के आसपास आइस शेल्व्स और हिम वृद्धि की भूमिका का अध्ययन करने के लिए एक भारत नार्वियन परियोजना, मेडिस की शुरुआत की गई थी।
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प्रख्यात महासागर विज्ञानी और बहु आयामी वैज्ञानिक एम. रविचन्द्रन, निदेशक राष्ट्रीय ध्रुवीय और महासागर अनुसंधान केन्द्र, गोवा के साथ साक्षात्कार
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आर्कटिक का भारत के लिए विशेष महत्व है क्योंकि भारतीय मानसून और आर्कटिक प्रक्रियाएं जटिल रूप से जुड़ी हुई हैं। आर्कटिक में पहला भारतीय वैज्ञानिक अभियान वर्ष 2007 में आरंभ किया गया था जिसके फलस्वरूप वर्ष 2008 में नी-अलसुंड में ‘हिमाद्रि’ की स्थापना हुई थी। भारत वर्ष 2012 में अंतर्राष्ट्रीय आर्कटिक विज्ञान समिति शामिल हुआ और वर्ष 2013 से आर्कटिक परिषद में एक प्रेक्षक है।
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दक्षिणी महासागर वैश्विक कार्बन पृथक्करण और चक्रण में प्रमुख भूमिका अदा करता है जो वैश्विक जलवायु पद्धति को काफी प्रभावित करता है। वर्ष 2004 से दक्षिणी महासागर के भारतीय क्षेत्र में इसकी जटिलताओं को समझने और कार्बन पृथक्करण में भूमिका, जैव विविधता और अन्य पृथ्वी प्रणाली प्रक्रियाओं को समझने के लिए 10 सफल वैज्ञानिक अभियान चलाए गए हैं।
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