डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद

कार्यकारी संपादक,

निदेशक,
परी ट्रेनिंग इन्सटीट्यूट

जलवायु परिवर्तन पर यूएनएफसीसीसी के तत्वावधान में एक महत्वपूर्ण सम्मेलन स्पेन की राजधानी मैड्रिड में दिसंबर 2019 में आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता से जुड़े सभी मुद्दों को सुलझाने की अपेक्षा रखी गई थी ताकि इसका पूर्णतः क्रियान्वयन किया जा सके। यह सम्मेलन वैसे समय में आयोजित हुआ जब सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले कई देश समस्या की गंभीरता को समझने को बिल्कुल तैयार नहीं हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता से औपचारिक रूप से स्वयं को अलग कर लेना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। सम्मेलन के दौरान भी कई मुद्दों पर विभिन्न देशों के बीच मतभेद उभरकर सामने आये। इनमें सबसे बड़ा मतभेद कार्बन मार्केट को लेकर था जिसका उल्लेख पेरिस जलवायु समझौता के अनुच्छेद-6 में है। यह अनुच्छेद सदस्य देशों को कार्बन क्रेडिट के रूप में उत्सर्जन कटौती की बिक्री व खरीद की अनुमति प्रदान करता है। क्योटो समझौता में भी इसका उल्लेख था। भारत, चीन व ब्राजील जैसे विकासशील देशों का पक्ष है कि पहले से बचा कार्बन क्रेडिट को भी नया कार्बन बाजार में वैध माना जाए ताकि वे इसे बेच सकें। वहीं विकसित देश इसका विरोध कर रहे हैं। विकसित देशों के मुताबिक पहले से बचा कार्बन क्रेडिट विश्वसनीय नहीं है और इनमें से कई क्रेडिट बोगस हैं क्योंकि क्योटो प्रोटोकॉल के तहत वास्तविक उत्सर्जन कटौती की निगरानी व सत्यापन की कोई मजबूत प्रणाली नहीं थी। आश्चर्य है कि जो देश पेरिस समझौता के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए गंभीरता से प्रयास कर रहे हैं, उन्हें ही मैड्रिड सम्मेलन में हतोत्साहित करने का यत्न किया जा रहा है। भारत इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

विगत कई वर्षों में भारत ने जलवायु परिवर्तन रोकने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं। जीडीपी की तुलना में उत्सर्जन गहनता (एमिशन इंटेंसिटी) को 21 प्रतिशत तक ला दिया गया है तथा पेरिस समझौता के अनुरूप 35 प्रतिशत का लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में भारत अग्रसर है। सरकार ने प्रति टन कोयला उत्पादन पर 6 डॉलर का कार्बन टैक्स भी आरोपित कर रखा है। प्रधनमंत्री 450 गीगावाट का नवीकरणीय उफर्जा (गैर-जीवाष्म ईंधन) क्षमता प्राप्ति की घोषणा भी कर चुके हैं। भारत में 100 प्रतिशत जैव ईंध्न पर वाणिज्यिक उड़ान भी भरी जा चुकी है तथा सरकार ने 2030 तक 20 प्रतिशत इथेनॉल ब्लेंडिंग का भी महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धरित कर रखा है। यही नहीं, 1 अप्रैल, 2020 से पूरे देश में यूरो-प्ट से सीधे यूरो-टप् उत्सर्जन मानक भी लागू किए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त ग्रीन कवर बढ़ाकर 2.5 से 3 अरब कार्बन के बराबर का कार्बन सिंक सृजित करने का भी लक्ष्य निर्धारित किया गया है। साथ ही हाल में भारत में भू-मरुस्थलीकरण रोकने पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के दौरान प्रधनमंत्रा ने 26 मिलियन डिग्रेडेड भूमि के पुनरूद्धार की भी घोषणा की। इन कदमों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौता के लक्ष्यों को प्राप्त करने के प्रति भारत कितना गंभीर है। वैश्विक स्तर पर भारत के इन प्रयासों की प्रशंसा भी हुयी है। मैड्रिड में कोप-25 सम्मेलन को संबोधित करते हुए केंद्रीय पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावडे़कर ने कहा भी कि पेरिस में घोषित एनडीसी (राष्ट्रीय स्तर पर निर्धरित योगदान) लक्ष्य की प्राप्ति में केवल छह देश सही दिशा में जा रहे हैं और भारत उसका नेतृत्व कर रहा है। उनके इस कथन की ‘जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक 2020’ (सीसीपीआई 2020) से पुष्टि भी होती है। इसमें विश्व के 57 देशों की सूची में भारत 10 सर्वोच्च देशों में शामिल है। वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका 61वें स्थान पर है (प्रथम तीन स्थान किसी देश को प्राप्त नहीं हुआ है)। सूचकांक में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन, नवीकरणीय उफर्जा, जलवायु नीति व उफर्जा उपयोग पर विभिन्न देशों के प्रदर्शन के आधर पर रैंकिंग तय की गई है। 

स्पष्ट है कि भारत जलवायु परिवर्तन को टालने में वैश्विक प्रयासों का गंभीरतापूर्वक नेतृत्व कर रहा है। परंतु विडंबना यह है कि जलवायु परिवर्तन ऐसी समस्या है जिसका समाधन एकल प्रयासों से संभव नहीं है। किसी एक देश का प्रयास वैश्विक तापवृद्धि जनित दुष्परिणामों से विश्व की रक्षा नहीं कर सकता। यही कारण है कि तमाम प्रयासों के बावजूद भारत में जलवायु परिवर्तन से संबंधित जोखिम/नुकसान बढ़ ही रहे हैं। जर्मनवाच द्वारा जारी ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2020 के अनुसार जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से वल्नरेबिलिटी के मामले में विश्व के 181 देशों में भारत पांचवें स्थान पर है। चरम मौसमी घटनाओं (चक्रवात, भारी वर्षा, बाढ़ व भू-स्खलन) के चलते वर्ष 2018 में भारत में 2081 लोगों की मौत हो गई, जो कि विश्व में किसी देश के लिए सर्वाध्कि है।

जोखिम की उपर्युक्त स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन को टालने की दिशा में भारत का पक्ष व प्रयास सराहनीय है और विकसित देशों को भी इसे समझने की जरूरत है।

भूगोल और आप’ का यह अंक हमेशा की तरह पर्यावरणीय मुद्दों पर केंद्रित है, परंतु इसमें कई अन्य प्रासंगिक विषयों पर भी सविस्तार चर्चा की गई है, मसलन्् नदी जल विवाद व बांध निर्माण। आशा है यह अंक आपको पसंद आएगा।

ध्न्यवाद!